CKP
Would you like to react to this message? Create an account in a few clicks or log in to continue.
Latest topics
» कायस्थांचे इमान गावे कोण्या कवनांनी ?
सोळा संस्कार EmptyMon 30 Jul 2012, 12:44 pm by Admin

»  आयुर्वेद:कोहळा
सोळा संस्कार EmptySat 26 Nov 2011, 2:28 pm by Admin

» आयुर्वेद आवळा
सोळा संस्कार EmptySat 12 Nov 2011, 1:30 pm by Admin

» आयुर्वेद: तुळस
सोळा संस्कार EmptyThu 10 Nov 2011, 9:49 pm by Admin

» CKP Fish Curry
सोळा संस्कार EmptyTue 12 Jul 2011, 4:31 pm by Admin

» Difference between GOTRA system of Kayastha and Brahmins
सोळा संस्कार EmptyFri 08 Jul 2011, 8:01 pm by चिंतातुरपंत धडपडे

» Various Origins of CKP's
सोळा संस्कार EmptyFri 08 Jul 2011, 3:01 pm by Admin

» मन एव मनुष्याणाम्‌
सोळा संस्कार EmptyThu 07 Jul 2011, 8:26 pm by चिंतातुरपंत धडपडे

» CKP आडनावे
सोळा संस्कार EmptySat 02 Jul 2011, 2:16 pm by Admin

Counter
free hit counters
todaypowerstoneyesterdaycounter

सोळा संस्कार

Go down

सोळा संस्कार Empty सोळा संस्कार

Post  Admin Tue 22 Mar 2011, 7:45 pm

सोळा संस्कार

माणसाचे व्यक्तिगत जीवन निरामय,संस्कारीत,विकसीत व्हावे व त्याद्वारे उत्तम,चारित्र्यसंपन्न,सुसंस्कारीत पुरुष निर्माण व्हावे.त्याद्वारे,चांगला समाज व पर्यायाने एक चांगले व सुसंस्कृत,बलशाली राष्ट्र निर्माण व्हावे हा यामागील प्रमुख उद्देश आहे.

हिंदू धर्मातील सोळा संस्कार(षोडश संस्कार) :

1. गर्भाधान
2. पुंसवन
3. अनवलोभन
4. सीमंतोन्नयन
5. जातकर्म
6. नामकरण
7. सूर्यावलोकन
8. निष्क्रमण
9. अन्नप्राशन
10. वर्धापन
11. चूडाकर्म
12. अक्षरारंभ
13. उपनयन
14. समावर्तन
15. विवाह
16. अंत्येष्टि

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty गर्भाधान

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 11:06 am

गर्भाधान म्हणजे योग्य दिवशी,योग्य वेळी,पवित्र व मंगलमय वातावरणात आनंदी मनाने स्त्री-पुरुषांचे मिलन होउन स्त्री चे गर्भाशयात गर्भाची बीज रुपाने स्थापना होणे.रजोदर्शनापासुन १६ रात्रींपर्यंत स्त्रियांच्या ऋतुकाळी गर्भसंभव होउ शकतो.या संस्कारासाठी ऋतुदर्शनापासुन पहील्या चार रात्री वर्ज्य कराव्या.अशुभ दिवस,ग्रहणदिवस,कुयोग त्या दिवशी असु नये. समरात्री संभोग केल्यास पुत्र व विषमरात्री संभोग केल्यास कन्या संतती होते, असा समज आहे.या दिवशी स्त्रीला सुशोभीत आसनावर बसवितात,ओवाळुन औक्षवण करतात.तिने चांगले दागीने,फुलमाला,(गजरा)इ.परीधान करावे.नंतर, पतीशी मिलन करावे.

संदर्भ :-
१)सुलभ जोतिष शास्त्र-ले.-ज्यो. कृष्णाजी विठ्ठल सोमण
२)सोळा संस्कार -डॉ.स्वाती कर्वे,पुणे

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty पुंसवन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 11:44 am

पुंसवन कर्म हे गर्भ राहिल्यापासून तिसर्‍या -चौथ्या महिन्यात करावयाचे कर्म आहे.

संदर्भ :
सुलभ जोतिष शास्त्र-ले.-ज्यो. कृष्णाजी विठ्ठल सोमण

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty अनवलोभन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 11:45 am

पुंसवन कर्मासारखाच करावयाचा हा संस्कार आहे.हा संस्कार गर्भ राहिल्यानंतर चौथ्या महिन्यात करावा.


Last edited by Admin on Wed 23 Mar 2011, 12:06 pm; edited 1 time in total

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty सीमंतोन्नयन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 11:53 am

* हिन्दू धर्म संस्कारों में सीमन्तोन्नयन संस्कार तृतीय संस्कार है। इस संस्कार का उद्देश्य है गर्भिणी स्त्री की शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक स्वस्थता, संयम, संतुष्टि एवं गर्भस्थ शिशु की शरीरवृद्धि का उपाय करना। अतः छठे या आठवें मास में इस संस्कार को अवश्य कर लेना चाहिये।
* यह तीसरा संस्कार है, जिसे सीमंतकरण या सीमंत-संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भपात रोकने के लिए किया जाता है। चौथे, छ्ठे व आठवें माह में गिरा हुआ गर्भ जीवित नहीं रहता। माता की मृत्यु कभी-कभी हो जाती है, क्योंकि इस समय शरीर में स्थित इंद्र विधुत प्रबल होता है। हालांकि सातवें माह में गिरा हुआ गर्भ जीवित रह सकता है। इन तीनों महीनों में यह संस्कार कर देने से यह इंद्र विधुत शांत हो जाता है, जिससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती है।
* यह संस्कार गर्भ के चौथे, छ्ठे या आठवें मास में किया जाता है। वैसे आठवां मास ही उपयुक्त है। इसका उद्देश्य गर्भ की शुद्धि और माता को श्रेष्ठचिंतन करने की प्रेरणा प्रदान करना होता है। उल्लेखनीय है की गर्भ में चौथे माह के बाद शिशु के अंग-प्रत्यंग, हृदय आदि बन जाते है और उनमें चेतना आने लगती है, जिससे बच्चे में जाग्रत इच्छाएं माता के हदय में प्रकट होने लगती हैं। इस समय गर्भस्थशिशु शिक्षणयोग्य बनने लगता है। उसके मन और बुद्धि में नई चेतना-शाक्ति जाग्रत होने लगती है। ऐसे में जो प्रभावशाली अच्छे संस्कार डाले जाते हैं, उनका शिशु के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पडता है।
* इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है। सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी।
* भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे। व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
* अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी। उसी शिक्षा के आधार पर 16 वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले 7 महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया।
* इस संस्कार को करते समय शास्त्रवर्णित गूलर वनस्पति द्धारा गार्भिणी पत्नी के सीमंत (मांग) का ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, पढते हुए और पृथक करणादि क्रियाएं करते हुए पति को निम्नलिखित मंत्रोच्चारण करना चाहिए -

येनादितेः सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

अर्थात जिस प्रकार देवमाता अदिति का सीमंतोन्नयन प्रजापति ने किया था, उसी प्रकार मैं इस गार्भिणी का सीमंतोन्नयन करके इसके पुत्र को जरावस्थापर्यंत दीर्घजीवी करता हूं।

* संस्कार के अंत में वृद्धा ब्राह्मणियों द्धारा पत्नी को आशीर्वाद दिलवाएं। सीमंतोन्नयन-संस्कार में पर्याप्त घी मिली खिचड़ी खिलाने का विधान है। इसका उल्लेख गोभिल गृहयसूत्र में इस प्रकार किया गया है -

किं पश्यास्सीत्युक्त्वा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं
भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।

अर्थात यह पूछने पर कि क्या देखती हो, तो स्त्री कहे मैं तो संतान देखती हूं। उस खिचडी का गार्भिणी सेवन करे। इस संस्कार के समय उपस्थित स्त्रियां उसे आशीर्वाद देते हुए कहें की तुम जीवित संतान उत्पन्न करने वाली हो। तुम चिरकाल तक सौभाग्यवती बनी रहो।


Last edited by Admin on Wed 23 Mar 2011, 12:05 pm; edited 1 time in total

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty जातकर्म संस्कार

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:04 pm

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।

प्राचीन काल
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।

जातकर्म
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।



Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty नामकरण

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:07 pm


जन्मदिवसापासून १०वे/१२वे दिवशी अपत्याचे नामकरण करावे असा नियम आहे. अन्यथा शुभदिवशी, शुभवारी, शुभयोगावर नामकरण करावे.नक्षत्राच्या अवकहडा चक्राप्रमाणे, जन्मनक्षत्राचे चरणाक्षर घेउन,त्यावर सुरु होणारे नाव, मुलाच्या उजव्या कानात तर मुलीच्या डाव्या कानात सांगावे. त्यावेळेस मंगल वाद्ये वाजवावित. हे जन्मनाव होय. व्यावहारीक नाव वेगळे.ते शुभ असावे. देवतावाचक, नक्षत्रवाचक, इ.चांगले नाव ठेवावे. नावात ऋ,लृ हे स्वर वर्ज्य करावे. पुरुषांच्या नावात समसंख्यांक व स्त्रियांचे नावात विषमसंख्यांक अक्षरे असावी असा सर्वसधारण नियम आहे.


संदर्भ :-
सुलभ जोतिष शास्त्र-ले.-ज्यो. कृष्णाजी विठ्ठल सोमण

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty सूर्यावलोकन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:17 pm

ह्यचे माहिती उपलब्ध नाही आहे.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty निष्क्रमण

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:18 pm

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।

प्राचीन काल
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं। दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।

निष्क्रमण्[
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty अन्नप्राशन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:21 pm


जन्मदिवसापासुन, ६/८/९/१० वा १२व्या महिन्यात बालकास अन्नप्राशन करावे.देवतांची पूजा, होम करून व दही,मध,तुप यांनी युक्त अन्न/ खिर बालकाला द्यावी.

स संस्कार में बच्चे को ठोस आहार दिया जाता है। यह ठोस आहार खीर होती है जो ना तो पूरी तरह तरह पेय होती है और न ही खाद्य। इस खीर में शहद, घी, तुलसी पत्ता और गंगाजल मिलाया जाता है। इन सभी चीज़ो को शामिल करने का उद्देश्य यह है कि ये पौष्टिक, रोगनाशक तथा पवित्र आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाने वाले होते हैं।

शास्त्रों में कहा गया है कि जैसा आहार होता है वैसी ही हमारी बुद्धि, हमारा स्वभाव और व्यक्तित्व होता है(As per Rituals our Mind,Character and Personality depends according to our Food)। इसलिए शुद्ध और पुष्ट आहार से अन्नप्राशन कराया जाता है। यह शुभ कर्म अर्थात संस्कार शुभ समय में हो इसके लिए मुहुर्त का विचार किया जाता है(Consideration of Muhurat for Good Work and Sanskar)। अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त देखते समय सबसे पहले हम संस्कार का समय ज्ञात करते हैं।

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty वर्धापन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:22 pm


जन्मकालापासुन एक सौरवर्ष पुर्ण झाल्यावर जन्मनक्षत्राचे दिवशी बालकाचा वाढदिवस करावा.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty चूडाकर्म

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:23 pm

चूडाकर्म हा हिंदू सोळा संस्कारांपैकी एक संस्कार आहे. यास मुंडनसंस्कार असेही म्हटले जाते.मुलाच्या वयाच्या पहिल्या किंवा तिसर्‍या किंवा पाचव्या वर्षी हा संस्कार करण्याचा संकेत आहे. या संस्कारामागे शुचिता आणि बौद्धिक विकास ही संकल्पना आहे. या संस्कारामुळे जन्माच्या वेळी उगवलेले डोक्यावरील अपवित्र केस काढून टाकले जातात. नऊ महिने आईच्या गर्भात राहिल्याने जन्मतः उगवलेले केस दूषित मानले जातात. चूड़ाकर्म संस्कारामुळे हे दोष दूर होतात. वैदिक मंत्रोच्चारांसोबत हा संस्कार संपन्न होतो.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty अक्षरारंभ

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:23 pm


बालकाला वयाचे पांचवे वर्षी उदगयनात सुर्य असतांना अक्षरे काढण्यास शिकविण्यास आरंभ करावा.योग्य दिवशी व वारी, शुभ योग,शुभ पक्ष इ.बघुन सुरुवात करावी. या वेळी,गणपती,लक्ष्मी,नारायण,सरस्वती,आपला वेद,गुरु, ब्राम्हण यांचे पूजन करून त्यांना वंदन करावे.सर्वप्रथम,ओम् कार लिहुन मग दुसरी अक्षरे लिहावी.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty उपनयन(मुंज)

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:53 pm

मुंज/उपनयन हा एक हिंदू धार्मिक संस्कार आहे. परंपरेनुसार, हा संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य या वर्णांतील तीन वर्णांत जन्मलेल्या पुरुषांसाठीच सांगितला आहे. या संस्कारानंतर संस्कारित व्यक्ती आपल्या पालकांपासून दूर होउन स्वत:च्या शिक्षणावर लक्ष केंद्रित करते. या संस्कारात यज्ञोपवीत (जानवे) धारण करणे हा मुख्य विधी असतो. लहानग्या बटुला लंगोट नेसवून इंद्रियनिग्रह समजावणारा हा महत्त्वाचा संस्कार आहे.

काही वर्षांपर्यंत फक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय व काही अंशी वैश्य वर्णांतील पुरुषांना हा संस्कार करवून घेण्याचा अधिकार असे. नवीन मतप्रणालीनुसार, विशेषत: नागरी महाराष्ट्रात, हे बंधन शिथिल होत चालले आहे. धर्म/जातींविषयी निरपेक्षता/उदासीनतेचा हा प्रभाव आहे.




'धर्मशास्त्रीय संकेत
उपनयन म्हणजे काय?

----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
गायत्रीमंत्राचा उपदेश, 'देवसवितरेष ते ब्रह्मचारी' आणि मंगलाष्टकानंतर बटूचे आचार्य जे मुखनिरीक्षण करतो, यापैकी प्रत्येकाला उपनयन समजणारे तीन पक्ष होतात. वेदाध्ययनाला सुरवात या दृष्टीने गायत्रीमंत्राच्या उपदेशाला अनन्यसाधारण महत्त्व देण्यात येते. आपल्या हिंदू धर्माचा, या विश्वाचा मूळ जो प्रजापति त्याला बटु(कुमर) अर्पण करणे हा ऐतिहासिक व अत्यंत महत्त्वाचा भाग आहे. म्हणून त्याचे सोळा संस्कारात परंपरा या दृष्टीने विशेष महत्त्व आहे. यज्ञोपवीत जानवे वगैरे प्रजापतीचे रूप घेण्याची साधने आहेत. उपनयन म्हणजे आपला मूळ जो प्रजापति, आत्म्याने त्याच्या जवळ जाणे, त्याची वस्त्रे, त्याची विद्या आपण मिळविण्याचा प्रयत्न करणे, केवळ या प्रमाणावरून पाहता ज्यांना वेदाधिकार पाहिजे असेल त्यांनी हा संस्कार करावयाचा आणि वैदिक व्हावयाचे असा मूळ उद्देश उपनयन संस्कारात दिसतो. सर्व सोळा संस्कारात उपनयनसंस्कार सर्वात श्रेष्ठ होय. हा संस्कार केल्याने बटूला वेदाध्ययनाचा अधिकार प्राप्त होतो. तसेच त्याला वैदिक धर्मात सांगितलेली कर्मे करण्याचाही अधिकार प्राप्त होतो.


महत्व
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
शास्त्रतः हा संस्कार त्रैवर्णिकांना करण्याचा अधिकार आहे. परंतु सध्या हा संस्कार विशेषतः ब्राह्मणात, फार थोड्या क्षत्रियात आणि वैश्यात करण्यात येतो. याला दुसरा जन्म मानण्याची चाल आहे. पहिला जन्म आई-बापांपासून आणि दुसरा जन्म गायत्री मंत्रापासून आणि आचार्य यांच्यामुळे प्राप्त होतो, असे या संस्काराचे महत्त्व वेदांत वर्णिलेले आहे.


उपनयनाचा काल
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्रत्येक वर्णाच्या लोकांना उपनयनाचा काल वेगळा सांगितला आहे. आठ, अकरा व बारा अशा क्रमाने ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य यांना काल सांगितला आहे. अनुक्रमे सोळा, बावीस व चोवीस वयाच्या पुढे तरी उपनयन राहता उपयोगी नाही. (आश्व. १-१९).तरी प्रगत महाराष्ट्रात हा विधी ब्राह्मणांत वयाच्या आठव्या वर्षी, क्षत्रियांत सोळाव्या वर्षापर्यंत, तर वैश्यांमध्ये हा बाराव्या वर्षी करण्याचे संकेत आहेत.


उपनयन संस्कार बंद पडल्यास प्रायश्चित्त
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
उपनयन संस्कार तीन पिढ्या बंद पडला असल्यास चौथ्या पिढीत प्रायश्चित्त देऊन पुनः संस्कार सुरू करण्याविषयी सर्व ग्रंथकारांचे एकमत आहे. काही ग्रंथकारांच्या मताने बारा पिढ्यांपर्यंतही संस्कार बंद पडला असल्यास सुरु करता येतो आणि काहींचे मताने केव्हाही प्रायश्चित्तपूर्वक हा संस्कार पुनः सुरू करता येतो. या सर्वांची विचारसरणी त्या त्या ग्रंथात पाहणेच सोयीचे होईल. थोडक्यात त्यांचे स्वरूप असे-

अथ यस्य पिता पितामह इत्युनुपेतो स्यातां ते ब्रह्महसंस्तुतास्तेषामभ्यागमनं भोजनं विवाहविधि वर्जयेत् ।
तेषामिच्छितां प्रायश्चित्त यथा प्रथमेऽतिक्रमे ऋतुरेवं सवत्सरं प्रतिपुरुष संख्याय संवत्सरा यावन्तोऽनुपेताः स्युः ।
अथ यस्य पितामहादि नानुस्मर्यते उपनयनं ते स्मशानसंस्तुतास्तेषामभ्यागमनं विवाहमिति वर्जयेत्तेषामिच्छतां प्रायश्चित्त द्वादशवर्षाणि त्रैविद्यकं ब्रह्मचर्यं चरेत्तत उपनयनमथोदकोपस्पर्शनं पावमान्यादिभिः ॥
आपस्तम्बधर्मसूत्रम् ।

अर्थ
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
ज्यांचा बाप व आजा उपनयन न झालेला आहे आणि स्वतःचीही ज्यांची मुंज झालेली नाही, त्यांना ब्रह्महत्या करणारे असे ज्ञानी लोकांकडून म्हटले जाते. अर्थात् त्यांच्याशी सहवास, भोजन, विवाह वर्ज्य करावा. अशांची जर इच्छा असेल तर त्यांना पुढीलप्रमाणे प्रायश्चित्त द्यावे. जर प्रथमच कालातिक्रम झाला असेल तर एक ऋतूपर्यंत ब्रह्मचर्याचे सर्व नियमांप्रमाणे वागावे आणि नंतर उपनयन करावे; आणि यापुढे जितके पुरुष म्हणजे बाप, आजा वगैरे तितक्या पिढ्यांकरिता एक एक वर्षपर्यंत ब्रह्मचार्‍याच्या नियमांप्रमाणे राहून नंतर उपनयन करावे.

पितामह म्हणजे आजा. त्याच्या पूर्वीचे जर अनुपनीत असतील तर त्यांच्याशीही ब्रह्मघ्नाप्रमाणे सर्व व्यवहार वर्ज्य करावेत व इच्छा असल्यास पणजोबापासून प्रत्येक पुरुषाला बारा वर्षाप्रमाणे ब्रह्मचर्याचे नियम पाळून नंतर उपनयन करावे. नंतर पावमानी ऋचांनी (यदन्ति यच्च दूरके ०) दररोज पुढे अभिमंत्रण करावे.


काही गौण विधि
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
घाणा भरणे हा एक धार्मिक विधीच्यापेक्षाही महत्त्वाचा विधि होऊन बसला आहे. वास्तविक घाणा भरणे म्हणजे सर्व कार्याची तयारी झाल्यामुळे उखळ, मुसळ वगैरे व्यवस्थित बांधून बाजूस ठेवणे. परंतु त्याला बायकांच्या साम्रज्यात काही विशेष महत्त्व आले आहे.

मंडप प्रतिष्ठा याचाही असाच प्रकार आहे. मांडव न घालता मंडपाच्या वेगवेगळ्या भागावर स्थापन करावयाच्या देवता सुपात मांडून ठेवावयाच्या ही गोष्ट केवळ थट्टास्पद होऊन बसते. तसेच पूर्वांगात आणि उत्तरांगात अनेक विधि शिरले आहेत. ते काढून टाकून विधीचे स्वरूप मुख्य भागावर आणून बसविणे हे आपले कर्तव्य आहे.


अधिकारी
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
उपनयन करण्यास मुख्य अधिकारी बाप होय. त्यानंतर आजोबा भाऊ, जातीचा कोणी तरी हे होत. ज्याची मुंज करावयाची त्याच्यापेक्षा तो वडील असावा म्हणजे झाले.



'उपनयन विधी १'
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
उपनयनकर्ता -
(सपत्‍नीकः कृतनित्यक्रियः कृतमाङगलिकस्नानः स्वलंकृतो बद्धशिखः द्विराचमेत् । पवित्रपाणिः प्राणानायम्य, इष्टदेवता गुर्वादींश्च नमस्कृस्य । देशकालौ संकीर्त्य ।)

(उपनयन संस्कार करणार्‍याने नित्यकर्म आटोपल्यानंतर तेल लावून ऊन पाण्याने स्नान करावे व कपाळीकेशराचे किंवा कुंकवाचे गंध लावावे. शेंडीला गाठ द्यावी व दोनदा आचमन करावे. पवित्रके घालावीत.
प्राणायाम करावा. इष्टदेवता, गुरु, आईबाप व ब्राह्मण यांस नमस्कार केल्यावर देशकालाचा उच्चार करावा.)

संकल्पः - मम उपनेतृत्वाधिकारसिद्धये कृच्छ्रत्रयप्रायश्चित्तं द्वादशसहस्त्रगायत्रीजपं च करिष्ये ।

संकल्प -मला उपनयन संस्कार करण्याचा अधिकार प्राप्त होण्यासाठी मी तीन कृच्छ्र प्रायश्चित्त व बारा हजार गायत्री जप करीन.

कुमारः- (आचम्य) मम कामाचार-कामवाद-कामभक्षणादि दोषापनोदार्थ कृच्छ्रत्रयं प्रायश्चित्तं प्रतिकृच्छ्‌रं तत्प्रत्याम्नायगोनिष्क्रयीभूतनिष्कपादार्धपरिमितरजतद्रव्यदानेन (अथवा) प्रतिकृच्छ्‌रं
तत्प्रत्याम्नायगोनिष्क्रयीभूतकार्षापणपरिमितताम्रमूल्यव्यावहारिकद्रव्यदानेन अहमाचारिष्ये ।

कुमार - (केवल आचमन करून) मला इच्छेस वाटेल तसे वागणे, इच्छेस वाटेल तसे बोलणे व इच्छेस वाटेल तसे खाणे वगैरे आचरण करण्यापासून उत्पन्न झालेल्या दोषांचे दूरीकरण होण्यासाठी मी तीन कृच्छ्र प्रायश्चित्त, किंवा त्याच्या प्रतिनिधीभूत द्रव्य देऊन आचरण करीन.

कर्ता - अस्य कुमारस्य

१ गर्भाधान

२ पुंसवन

३ सीमन्तोन्नयन

४ अनवलोभन

५ जातकर्म

६ नामकरण

७ निष्क्रमण

८ अन्नप्राशन

९ चौलान्तानां

नवसंस्काराणा कालातिप्तत्तिप्रत्यवायपरिहारद्वरा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्रतिसंस्कारं, ॐ भूर्भुवः स्वःस्वहेत्येकैकाज्याहुतिं करिष्ये ।

तथा च - उक्तसंस्काराणां लोपजनितप्रत्यवायपरिहारद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं प्रतिसंस्कार पादकृच्छ्‌रं चौलस्य चार्धकृच्छ्‌रं प्रायश्चित्त तत्प्रत्याम्नायगोनिष्क्रयीभूतद्रव्यप्रदान करिष्ये

कर्ता - ह्या कुमाराचे

१. गर्भाधान

२. पुंसवन

३. सीमंतोन्नयन

४. अनवलोभन

५. जातकर्म

६. नामकरण

७. निष्क्रमण

८. अन्नप्राशन

९. चौल

ह्या नऊ संस्कारांचा कालातिक्रम झाल्याबद्दलचा दोष दूर होऊन श्रीपरमेश्वराची कृपा होण्यासाठी प्रत्येक संस्काराचा

'ॐ भुर्भुवः स्वः स्वाहा'

असे म्हणून एक एक तुपाची आहुति व संस्कारांचा लोप झाल्यामुळे संस्काराला पादकृच्छ, व चौलाबद्दल अर्धकृच्छ्र याप्रमाणे प्रत्यक्श किंवा प्रतिनिधिद्वारा (द्रव्य वगैरे देऊन) प्रायश्चित्त करीन.

तथा च - अस्य कुमारस्य द्विजत्वासिद्ध्या वेदाध्ययनाधिकारसिद्ध्यर्थं उपनयनं करिश्ये ।

कर्ता - (कृतमंगलस्नानमलंकृतं कुमारं मात्रा सह भोजयित्वा)

कर्ता - ह्यास द्विजत्व प्राप्त होऊन वेदाध्ययनाचा अधिकार उत्पन्न होण्यासाठी उपनयन संस्कार करीन.

(कर्त्याने अभ्यंगस्नान केलेल्या आणि अलंकृत केलेल्या अशा कुमारास आईचे सांगत जेऊ घालून आपणाजवळ बसवावे.)

संकल्प - अस्य कुमारस्य उपनयनं कर्तुं तत्प्राच्यांगभूतं वापनादि करिष्ये (वपनं कारयित्वा, स्नापितं, बद्धशिखं कुमारं मंगलतिलकं कुर्यात् । अत्र मौहूर्तिक सत्कृत्य तदुक्ते शुभे मुहूर्ते आचार्यो वेद्यां प्राङ्‌मुख उपविश्य बटुं प्रत्यङ्‌मुखं स्थापयेत् । अन्तरा पट धृत्वा सुवासिन्यो मंगलाष्टकपद्यानि ब्राह्मणा मन्त्रांश्च पठेयुः । तत आचार्यः कुमारं समीपमानीय तन्मुखं सम्यगीक्षेत । कृतनमस्कारं च तं स्वांके कुर्वीत । ततो बटुमाचार्यः स्वदक्षिणत उपवेशयेत्)

इति उपनयनपूर्वांगकृत्यं समाप्तम् ।

कर्ता - आचमनं प्राणायामः ।

संकल्प - ह्या कुमाराचे उपनयन करण्याकरिता त्यांचे पूर्वांगभूतकेशवापन करतो.

(वपन करवून, स्नान घालून, शेंडीला गाठ द्यावी. कपाळी कुंकुमतिलक लावावा. या वेळी ज्योतिष्याची गंधाक्षता, दक्षिणा, विडा देऊन पूजा करावी आणि त्यांनी सांगितलेल्या शुभमुहुर्तावर आचार्याने बहुल्यावर पूर्वेकडे तोंड करून बसावे आणि पश्चिमेकडे तोंड करून बटूला उभे करावे मध्ये आन्तरपट धरून सुवास्नींनी मंगलाष्टके व ब्राह्मणांनी मंत्र म्हणावेत.

(मंगलाष्टके शेवती दिली आहेत. हा प्रकार लौकिक आहे.)

नंतर अचार्याने त्या बटूस जवळ घेऊन त्याचे तोंड चांगल्या तर्‍हेने निरीक्षावे आणि स्वतःला नमस्कार करवून त्याला स्वतःच्या मांडीवर बसवावे, व नंतर त्याला आपल्या उजव्या बाजूला बसवावे.

आचमन , प्राणायाम करावा.

संकल्प - अमुकशर्मणः कुमारस्य द्विजत्वसिद्धया वेदाध्ययनाधिकारार्थं उपनयनहोमं करिष्ये ।

(ततः समुद्भवनामानमग्निं गृहीत्वा स्थालीपाकतंत्रेण वैश्वदेवतंत्रेण वाग्निकार्यं कृत्वा)

संकल्प - अमुक नावाच्या कुमाराला द्विजत्व प्राप्त होऊन वेदाध्ययनाचा अधिकार प्राप्त व्हावा म्हणून उपनयन होम करतो.

स्थालीपाकतंत्राने किंवा वैश्वदेवतंत्राने पूर्वांग अग्निकार्य करावे.

वासोधारणम् - (कौपीनार्थं त्रिवृतं कार्पाससूत्रं कटावाबध्य कौपीनं परिधाप्य) युवं वस्त्राणीत्यस्य औचथ्यो दीर्घतमा, मित्राक्‍रुणौ त्रिष्टुभ् वासोधारणे विनियोगः ।

ॐ युवं वस्त्राणि पीवसा वसाथे युवोराच्छिद्रा मन्तवो ह सगाः । अवातिरतमनृतानि विश्‍वा ऋतेन मित्रावरुणा सचेथे ॥१॥

(इति मंत्रेण अहतं शुक्ल वासः परिधाप्य अन्येन काषायवाससा तेनैव मंत्रेण तथैव प्रावारेत्)

वासोधारण - लंगोटीकरता तिहेरी वळलेला कापसाचा दोरा कंबरेला बांधून लंगोटी घालावी. 'युवं वस्त्राणि' ह्या मंत्राचा औचथ्य दीर्घतमा हा ऋषि, मित्रावरुण हे देव, व त्रिष्टुभ् हा छंद होय. वस्त्रधारणाकरिता उपयोग.

'ॐ युवं वस्त्राणि'

१. हा मंत्र म्हणून नवे पांढरे वस्त्र नेसवून आणि त्याच मंत्राने नवे पिवळे वस्त्र अंगावर घालावे.

अजिनधारणम्- मित्रस्य चक्षुरित्यस्य वामदेवोऽजिनं त्रिष्टुभ् अजिनधारणे विनियोगः ।

ॐ मित्रस्य चक्षुर्धरुण बलीयस्तेजो यशस्वी स्थविर समिद्धम् ।

अनाहनस्यं वसन जरिष्णु परीदं वाज्यजिनं दधेऽहम् ॥२॥

(इत्यजिनं धारयेत्)

अजिनधारणम् - मित्रस्य चक्षुः' ह्या मंत्राचा वामदेव हा ऋषि, अजिन ही देवता आणि त्रिष्टुभ् हा छंद होय. अजिनधारणाकडे उपयोग. वस्त्र किंवा अजिन यापैकी एक घेतले तरी चालते. सध्या दोन्ही घालण्याची चाल आहे.

'ॐ मित्रस्य'

ह्या मंत्राने अजिन म्हणजे कातडे धारण करवावे.

यज्ञोपवीतधारणम् - (ततो गायत्र्या दशकृतो मंत्रिताभिरदिभरुपवीतं प्रोक्ष्य धारयेत् ) यज्ञोपव्तमित्यस्य परब्रह्म ऋषिः परमात्मा देवता त्रिष्टुभ छन्दः ।

यज्ञोपवीतधारणे विनियोगः ।

( इति मंत्र वाचयित्वा दक्षिणबाहुमुद्धार्य उपवीतं धारयित्वा कुमारमात्मनो‍ग्नेश्च मध्येन अग्नेरुत्तरभागं गमयेत् ।)

यज्ञोपवीतधारण - (गायत्रीमंत्र दहा वेळा म्हणून अभिमंत्रित केलेल्या पाण्याने प्रोक्षण करून यज्ञोपवीत धारण करण्याकरिता बटूच्या हातात द्यावे.)

'यज्ञोपवीत' या मंत्राचा परब्रह्म हा ऋषि, परमात्मा ही देवता आणि त्रिष्टुभ हा छंद होय. यज्ञोपवीतधारणाकडे उपयोग.

ॐ यज्ञोपवीतं परम पवित्रं प्रजापतये सहज पुरस्तात् ।

आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥३॥

कुमारः - आचमनम्-केशवाय नमः... श्रीकृष्णायनमः । पुनस्तथैवानीय स्वदक्षिणत उपवेश्य भूर्भुवः स्वः स्वाहेति प्रायश्चित्तस्य नवाहुतीर्दद्यात् । )

ॐ यज्ञोपवीत० (३) हा मंत्र कुमाराकडून म्हणवून त्याचा उजवा हात वर करून त्यातून यज्ञोपवीत धारण करवावे.

मग आपल्या व अग्नीच्या मधून बटूला अग्नीच्या उत्तरेकडे आणुन तेथे आचमन करवून पुन्हा तसेच परत आणून आपल्या उजवीकडे बसविल्यावर

'भूर्भुवः स्वः स्वाहा'

असे म्हणून प्रायश्चित्ताच्या नऊ आहुति द्याव्यात.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty समावर्तन

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 12:54 pm


यास सोडमुंज असेही म्हणतात.उपनयनास जो काल प्रश्स्त आहे, त्याकाली समावर्तन करावे.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty विवाह

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 1:12 pm

हिंदू धर्मात विवाहास सोळा संस्कारांतील एक संस्कार मानतात. पाणिग्रहण संस्का‍रास सामान्यतः हिंदू विवाह या नावाने ओळखले जाते. अन्य काही धर्मांत विवाह हा विशेष परिस्थितीत तोडला जाऊ शकणारा पती व पत्नीं‍ यांमधील एका प्रकाराचा करार असतो. परंतु हिंदू विवाहामुळे जुळून आलेला पति-पत्नीं‍दरम्यानचा तथाकथित जन्मोजन्मींचा संबंध हा सामान्य परिस्थितीत तोडला जाऊ न शकणारा संबंध असतो. अग्नीभोवती सात प्रदक्षिणा घालून व ध्रुव तार्‍यास साक्षी ठेवून दोन शरीरे, मने आणि आत्मे एका पवित्र बंधनात बांधले जातात. हिंदू विवाहात पतिपत्नीं‍मधल्या शारीरिक संबंधांच्या जोडीने आत्मिक संबंधांनाही महत्त्वाचे व अत्यंत पवित्र मानले गेले आहे.

हिंदू समजुतींनुसार मानवी जीवनास चार आश्रमांत (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, संन्यासाश्रम व वानप्रस्थाश्रम) विभागले गेले आहे. त्यांतील गृहस्थाश्रमासाठी पाणिग्रहण संस्कार/विवाह हा अत्यावश्यक आहे. हिंदू विवाहानंतर पतिपत्नींमध्ये घडून येणारा शारीरिक संबंध फक्त वंशवृद्धीच्या उद्देशानेच व्हावा अशी आदर्श कल्पना आहे.

सप्तपदी
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
सप्तपदीनंतर विवाह संस्कार पक्का आणि अपरिवर्तनीय होतो. हा विधी करताना यज्ञवेदीच्या भोवती सात पाटांवर प्रत्येकी एक अशा तांदळाच्या लहान लहान राशी मांडलेल्या असतात. प्रत्येक राशीवर सुपारी ठेवलेली असते. होमाग्नी अर्ध्यदानाने प्रज्वलित केला जातो. पुरोहिताचा सतत मंत्रोच्चार चालू असताना वधूवर यज्ञवेदीभोवती प्रदक्षिणा घालतात. तसे करताना वर वधूचा हात धरून पुढे चालतो. वधू तांदळाच्या प्रत्येक राशीवर प्रथम उजवे पाऊल ठेवते आणि त्याच प्रकारे सर्व राशींवर पाऊल ठेवून चालते. प्रत्येक पदन्यासाचा स्वतंत्र मंत्र उच्चारला जातो. त्यानंतर ते दोघे होमाग्नीस तूप आणि लाह्या अर्पण करतात. सप्तपदीनंतर वधू-वर अचल अशा ध्रुवतार्‍याचे दर्शन घेऊन हात जोडून नमस्कार करतात. विवाहबंधनाचे आजन्म चिरंतन पालन करण्याच्या प्रतिज्ञेचे हे प्रतीक होय.

वरात, गृहप्रवेश, लक्ष्मीपूजन, देवकोत्थापन आणि मंडापोद्‌वासन ह्या विधींनंतर विवाह संस्काराची सांगता होते.

वरात :

गृहप्रवेश :

लक्ष्मीपूजनः

देवकोत्थापन:

मंडपीद्वासन :


विवाहाचे प्रकार
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. ब्राह्म विवाह : दोन्ही पक्षांच्या सहमतीने समान वर्गाचे सुयोग्य वराशी वधूचा विवाह ठरवणे, यास 'ब्राह्म विवाह' म्हणतात. सामान्यतः या विवाहानंतर वधूस सालंकृत करून पाठवले जाते. आजकालचा 'नियोजित विवाह' (स्थळे पाहून ठरवलेला विवाह) हे 'ब्राह्म विवाहा'चेच एक रूप आहे.
2. दैव विवाह : कोणत्यातरी सेवाकार्यासाठी (विशेषतः धार्मिक अनुष्ठानासाठी) लागणार्‍या पैशांपोटी आपल्या कन्येचे दान देणे, यास 'दैव विवाह' म्हणतात.
3. आर्ष विवाह : वधूपक्षाकडील लोकांस कन्येचे मूल्य देऊन (सामान्यतः गोदान देऊन) कन्येशी विवाह करणे, यास 'आर्ष विवाह' असे म्हणतात.
4. प्राजापत्य विवाह : कन्येच्या सहमतीशिवाय तिचा विवाह अभिजात्य वर्गांतील वराशी करणे, यास 'प्राजापत्य विवाह' म्हणतात.
5. गांधर्व विवाह : कुटुंबीयांच्या सहमतीशिवाय वधू-वरांनी कोणत्याही रीतीरिवाजांशिवाय एकमेकांशी विवाह करणे, यास 'गांधर्व विवाह' म्हणतात. दुष्यंताने शकुंतलेशी 'गांधर्व विवाह' केला होता.
6. आसुर विवाह : कन्येस विकत घेऊन (पैशांनी) विवाह करणे, यास 'आसुर विवाह' म्हणतात.
7. राक्षस विवाह : कन्येच्या सहमतीशिवाय तिचे अपहरण करून जबरदस्तीने विवाह करणे, यास 'राक्षस विवाह' म्हणतात.
8. पैशाच विवाह : कन्येच्या शुद्धीत नसण्याचा (ग्लानी, गाढ निद्रा, थकवा इत्यादींचा) फायदा घेऊन तिच्याशी शारीरिक संबंध प्रस्थापित करणे व नंतर विवाह करणे, यास 'पैशाच विवाह' म्हणतात.

विवाहाशी संबंध असलेले काही चमत्कारिक विधी
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. कुंभ विवाह : एखाद्या मुलीला अकाली वैधव्य येणार असल्यास ते टाळण्याकरिता हा विधी करतात. विवाहाच्या आदल्या दिवशी मातीच्या कुंभात(भांड्यात) पाणी भरुन त्यात सोन्याची विष्णुप्रतिमा टाकून ठेवतात. त्याला फुलांनी सुशोभित करतात. मुलीच्या भोवती दो-यांची जाळी करून मुलीला लपटेतात. विष्णूचे पूजन करून नियोजित वराला दीर्घायुष्य प्राप्त व्हावे अशी प्रार्थना करतात. नंतर तो कुंभ एखाद्या नदीत फोडतात. नंतर मुलीच्या अंकावर पाणी शिंपडतात व ब्राह्मणांना भोजन घालून हा विधी पूर्ण करतात.

1. अश्वत्थ विवाह : हा विधीही वैधव्ययोग टाळावा म्हणून करतात आणि तो कुंभविवाहासारखा असतो. या विधीत मातीच्या कुंभाऐवजी अश्वत्थाचे झाड आणि सोन्याची विष्णुप्रतिमा ह्यांचे पूजन करतात आणि नंतर ती प्रतिमा ब्राह्मणाला दान देतात.
2. अर्कविवाह : एखाद्या मनुष्याच्या एकीपाठोपाठ दुसरी अशा दोन पत्‍नींचे निधन झाले तर तिसरीबरोबर विवाह करण्यापूर्वी तो अर्काच्या म्हणजे रुईच्या झाडाबरोबर विवाह करतो.

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty अंत्येष्टि

Post  Admin Wed 23 Mar 2011, 1:13 pm

द्वि व त्रिपुष्कर योग,पंचक,इ.कुयोग बघुन,त्यानुसार,संमतविधी करून दहनविधी करावा.वर्ज वार व वर्ज नक्षत्रे बघून अस्थीसंचय करावा.त्यानंतर दहा दिवसाचे आंत,तिर्थात नेउन टाकव्या.नंतर, श्राध्दविधी करावा.

संदर्भ :-
सुलभ जोतिष शास्त्र-ले.-ज्यो. कृष्णाजी विठ्ठल सोमण

Admin
Admin

Posts : 62
Join date : 2011-03-22
Location : Pune

http://sampurnackp.co.cc

Back to top Go down

सोळा संस्कार Empty Re: सोळा संस्कार

Post  Sponsored content


Sponsored content


Back to top Go down

Back to top


 
Permissions in this forum:
You cannot reply to topics in this forum